Lekhika Ranchi

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उपन्यास-गोदान-मुंशी प्रेमचंद


गोदान--मुंशी प्रेमचंद



गोबर और झुनिया के जाने के बाद घर सुनसान रहने लगा। धनिया को बार-बार मुन्नू की याद आती रहती है। बच्चे की माँ तो झुनिया थी; पर उसका पालन धनिया ही करती थी। वही उसे उबटन मलती, काजल लगाती, सुलाती और जब काम-काज से अवकाश मिलता, उसे प्यार करती। वात्सल्य का यह नशा ही उसकी विपत्ति को भुलाता रहता था। उसका भोला-भाला, मक्खन-सा मुँह देखकर वह अपनी सारी चिन्ता भूल जाती और स्नेहमय गर्व से उसका हृदय फूल उठता। वह जीवन का आधार अब न था। उसका सूना खटोला देखकर वह रो उठती। वह कवच जो सारी चिन्ताओं और दुराशाओं से उसकी रक्षा करता था, उससे छिन गया था। वह बार-बार सोचती, उसने झुनिया के साथ ऐसी कौन-सी बुराई की थी, जिसका उसने यह दंड दिया। डाइन ने आकर उसका सोना-सा घर मिट्टी में मिला दिया। गोबर ने तो कभी उसकी बात का जवाब भी न दिया था। इसी राँड़ ने उसे फोड़ा और वहाँ ले जाकर न जाने कौन-कौन-सा नाच नचायेगी। यहाँ ही वह बच्चे की कौन बहुत परवाह करती थी। उसे तो अपनी मिस्सी-काजल, माँग-चोटी से ही छुट्टी नहीं मिलती। बच्चे की देख-भाल क्या करेगी। बेचारा अकेला ज़मीन पर पड़ा रोता होगा। बेचारा एक दिन भी तो सुख से नहीं रहने पाता। कभी खाँसी, कभी दस्त, कभी कुछ, कभी कुछ। यह सोच-सोचकर उसे झुनिया पर क्रोध आता। गोबर के लिए अब भी उसके मन में वही ममता थी। इसी चुड़ैल ने उसे कुछ खिला-पिलाकर अपने वश में कर लिया। ऐसी मायाविनी न होती, तो यह टोना ही कैसे करती। कोई बात न पूछता था। भौजाइयों की लातें खाती थी। यह भुग्गा मिल गया तो आज रानी हो गयी। होरी ने चिढ़कर कहा -- जब देखा तब तू झुनिया ही को दोस देती है। यह नहीं समझती कि अपना सोना खोटा तो सोनार का क्या दोस। गोबर उसे न ले जाता तो क्या आप-से-आप चली जाती? सहर का दाना-पानी लगने से लौंडे की आँखें बदल गयीं। ऐसा क्यों नहीं समझ लेती। धनिया गरज उठी -- अच्छा चुप रहो। तुम्हीं ने राँड़ को मूड़ पर चढ़ा रखा था, नहीं मैंने पहले ही दिन झाड़ू मारकर निकाल दिया होता। खलिहान में डाठें जमा हो गयी थीं।

होरी बैलों को जुखर कर अनाज माँड़ने जा रहा था। पीछे मुँह फेरकर बोला -- मान ले, बहू ने गोबर को फोड़ ही लिया, तो तू इतना कुढ़ती क्यों है? जो सारा ज़माना करता है, वही गोबर ने भी किया। अब उसके बाल-बच्चे हुए। मेरे बाल-बच्चों के लिए क्यों अपनी साँसत कराये, क्यों हमारे सिर का बोझ अपने सिर पर रखे!
'तुम्हीं उपद्रव की जड़ हो। '
'तो मुझे भी निकाल दे। ले जा बैलों को अनाज माँड़। मैं हुक़्क़ा पीता हूँ। '
'तुम चलकर चक्की पीसो मैं अनाज माड़ूँगी। '
विनोद में दुःख उड़ गया। वही उसकी दवा है। धनिया प्रसन्न होकर रूपा के बाल गूँथने बैठ गयी जो बिलकुल उलझकर रह गये थे, और होरी खलिहान चला। रसिक बसन्त सुगन्ध और प्रमोद और जीवन की विभूति लुटा रहा था, दोनों हाथों से, दिल खोलकर। कोयल आम की डालियों में छिपी अपनी रसीली, मधुर, आत्मस्पर्शी कूक से आशाओं को जगाती फिरती थी। महुए की डालियों पर मैनों की बरात-सी लगी बैठी थी। नीम और सिरस और करौंदे अपनी महक में नशा-सा घोल देते थे। होरी आमों के बाग़ में पहुँचा, तो वृक्षों के नीचे तारे-से खिले थे। उसका व्यथित, निराश मन भी इस व्यापक शोभा और स्फूर्ति में आकर गाने लगा --
'हिया जरत रहत दिन-रैन। आम की डरिया कोयल बोले, तनिक न आवत चैन। '
सामने से दुलारी सहुआइन, गुलाबी साड़ी पहने चली आ रही थीं। पाँव में मोटे चाँदी के कड़े थे, गले में मोटी सोने की हँसली, चेहरा सूखा हुआ; पर दिल हरा। एक समय था, जब होरी खेत-खलिहान में उसे छेड़ा करता था। वह भाभी थी, होरी देवर था, इस नाते से दोनों में विनोद होता रहता था। जब से साहजी मर गये, दुलारी ने घर से निकलना छोड़ दिया। सारे दिन दूकान पर बैठी रहती थी और वहीं वे सारे गाँव की ख़बर लगाती रहती थी। कहीं आपस में झगड़ा हो जाय, सहुआइन वहाँ बीच-बचाव करने के लिए अवश्य पहुँचेगी। आने रुपए सूद से कम पर रुपए उधार न देती थी। और यद्यपि सूद के लोभ में मूल भी हाथ न आता था -- जो रुपए लेता, खाकर बैठ रहता -- मगर उसके ब्याज का दर ज्यों-का-त्यों बना रहता था। बेचारी कैसे वसूल करे। नालिश-फ़रियाद करने से रही, थाना-पुलिस करने से रही, केवल जीभ का बल था; पर ज्यों-ज्यों उम्र के साथ जीभ की तेज़ी बदलती जाती थी, उसकी काट घटती जाती थी। अब उसकी गालियों पर लोग हँस देते थे और मज़ाक़ में कहते -- क्या करेगी रुपए लेकर काकी, साथ तो एक कौड़ी भी न ले जा सकेगी। ग़रीब को खिला-पिलाकर जितनी असीस मिल सके, ले-ले। यही परलोक में काम आयेगा। और दुलारी परलोक के नाम से जलती थी।
होरी ने छेड़ा -- आज तो भाभी, तुम सचमुच जवान लगती हो।
सहुआइन मगन होकर बोली -- आज मंगल का दिन है, नज़र न लगा देना। इसी मारे मैं कुछ पहनती-ओढ़ती नहीं। घर से निकली तो सभी घूरने लगते हैं, जैसे कभी कोई मेहरिया देखी न हो। पटेश्वरी लाला की पुरानी बान अभी तक नहीं छूटी। होरी ठिठक गया; बड़ा मनोरंजक प्रसंग छिड़ गया था। बैल आगे निकल गये।
'वह तो आजकल बड़े भगत हो गये हैं। देखती नहीं हो, हर पूरनमासी को सत्यनारायण की कथा सुनते हैं और दोनों जून मन्दिर में दर्शन करने जाते हैं। '
'ऐसे लम्पट जितने होते हैं, सभी बूढ़े होकर भगत बन जाते हैं। कुकर्म का परासचित तो करना ही पड़ता है। पूछो, मैं अब बुढ़िया हुई, मुझसे क्या हँसी। '
'तुम अभी बुढ़िया कैसे हो गयी भाभी? मुझे तो अब भी... '
'अच्छा चुप ही रहना, नहीं डेढ़ सौ गाली दूँगी। लड़का परदेस कमाने लगा, एक दिन नेवता भी न खिलाया, सेंत-मेंत में भाभी बताने को तैयार। '
'मुझसे क़सम ले लो भाभी, जो मैंने उसकी कमाई का एक पैसा भी छुआ हो। न जाने क्या लाया, कहाँ ख़रच किया, मुझे कुछ भी पता नहीं। बस एक जोड़ा धोती और एक पगड़ी मेरे हाथ लगी। '
'अच्छा कमाने तो लगा, आज नहीं कल घर सँभालेगा ही। भगवान् उसे सुखी रखे। हमारे रुपए भी थोड़ा-थोड़ा देते चलो। सूद ही तो बढ़ रहा है। '
'तुम्हारी एक-एक पाई दूँगा भाभी, हाथ में पैसे आने दो। और खा ही जायेंगे, तो कोई बाहर के तो नहीं हैं, हैं तो तुम्हारे ही। '
सहुआइन ऐसी विनोद भरी चापलूसियों से निरस्त्र हो जाती थी। मुस्कराती हुई अपनी राह चली गयी। होरी लपककर बैलों के पास पहुँच गया और उन्हें पौर में डालकर चक्कर देने लगा। सारे गाँव का यही एक खलिहान था। कहीं मँड़ाई हो रही थी, कोई अनाज ओसा रहा था, कोई गल्ला तौल रहा था। नाई, बारी, बढ़ई, लोहार, पुरोहित, भाट, भिखारी, सभी अपने-अपने जेवरें लेने के लिए जमा हो गये थे। एक पेड़ के नीचे झिंगुरीसिंह खाट पर बैठे अपनी सवाई उगाह रहे थे। कई बनिये खड़े गल्ले का भाव-ताव कर रहे थे। सारे खलिहान में मंडी की-सी रौनक़ थी। एक खटकिन बेर और मकोय बेच रही थी और एक खोंचेवाला तेल के सेव और जलेबियाँ लिये फिर रहा था। पण्डित दातादीन भी होरी से अनाज बँटवाने के लिए आ पहुँचे थे और झिंगुरीसिंह के साथ खाट पर बैठे थे।
दातादीन ने सुरती मलते हुए कहा -- कुछ सुना, सरकार भी महाजनों से कह रही है कि सूद का दर घटा दो, नहीं डिग्री न मिलेगी।

झिंगुरी तमाखू फाँककर बोले -- पण्डित मैं तो एक बात जानता हूँ। तुम्हें गरज पड़ेगी तो सौ बार हमसे रुपए उधार लेने आओगे, और हम जो ब्याज चाहेंगे, लेंगे। सरकार अगर असामियों को रुपए उधार देने का कोई बन्दोबस्त न करेगी, तो हमें इस क़ानून से कुछ न होगा। हम दर कम लिखायेंगे; लेकिन एक सौ में पचीस पहले ही काट लेंगे। इसमें सरकार क्या कर सकती है।
'यह तो ठीक है; लेकिन सरकार भी इन बातों को ख़ूब समझती है। इसकी भी कोई रोक निकालेगी, देख लेना। ' ' इसकी कोई रोक हो ही नहीं सकती। '
'अच्छा, अगर वह शर्त कर दे, जब तक स्टाम्प पर गाँव के मुखिया या कारिन्दा के दसख़त न होंगे, वह पक्का न होगा, तब क्या करोगे? '
'असामी को सौ बार गरज होगी, मुखिया को हाथ-पाँव जोड़ के लायेगा और दसखत करायेगा। हम तो एक चौथाई काट ही लेंगे। '
'और जो फँस जाओ! जाली हिसाब लिखा और गये चौदह साल को। '

झिंगुरीसिंह ज़ोर से हँसा -- तुम क्या कहते हो पण्डित, क्या तब संसार बदल जायेगा? क़ानून और न्याय उसका है, जिसके पास पैसा है। क़ानून तो है कि महाजन किसी असामी के साथ कड़ाई न करे, कोई ज़मींदार किसी कास्तकार के साथ सख़्ती न करे; मगर होता क्या है। रोज़ ही देखते हो। ज़मींदार मुसक बँधवा के पिटवाता है और महाजन लात और जूते से बात करता है। जो किसान पोढ़ा है, उससे न ज़मींदार बोलता है, न महाजन। ऐसे आदमियों से हम मिल जाते हैं और उनकी मदद से दूसरे आदमियों की गर्दन दबाते हैं। तुम्हारे ही ऊपर राय साहब के पाँच सौ रुपए निकलते हैं; लेकिन नोखेराम में है इतनी हिम्मत कि तुमसे कुछ बोले? वह जानते हैं, तुमसे मेल करने ही में उनका हित है। असामी में इतना बूता है कि रोज़ अदालत दौड़े? सारा कारबार इसी तरह चला जायगा, जैसे चल रहा है। कचहरी-अदालत उसी के साथ है, जिसके पास पैसा है। हम लोगों को घबराने की कोई बात नहीं। यह कहकर उन्होंने खलिहान का एक चक्कर लगाया और फिर आकर खाट पर बैठते हुए बोले -- हाँ, मतई के ब्याह का क्या हुआ? हमारी सलाह तो है कि उसका ब्याह कर डालो। अब तो बड़ी बदनामी हो रही है। दातादीन को जैसे ततैया ने काट खाया। इस आलोचना का क्या आशय था, वह ख़ूब समझते थे। गर्म होकर बोले -- पीठ पीछे आदमी जो चाहे बके, हमारे मुँह पर कोई कुछ कहे, तो उसकी मूँछें उखाड़ लूँ। कोई हमारी तरह नेमी बन तो ले। कितनों को जानता हूँ, जो कभी सन्ध्या-बन्दन नहीं करते, न उन्हें धरम से मतलब, न करम से; न कथा से मतलब, न पुरान से। वह भी अपने को ब्राह्मण कहते हैं। हमारे ऊपर क्या हँसेगा कोई, जिसने अपने जीवन में एक एकादसी भी नागा नहीं की, कभी बिना स्नान-पूजन किये मुँह में पानी नहीं डाला। नेम का निभाना कठिन है। कोई बता दे कि हमने कभी बाज़ार की कोई चीज़ खायी हो, या किसी दूसरे के हाथ का पानी पिया हो, तो उसकी टाँग की राह निकल जाऊँ। सिलिया हमारी चौखट नहीं लाँघने पाती, चौखट; बरतन-भाँड़े छूना तो दूसरी बात है। मैं यह नहीं कहता कि मतई यह बहुत अच्छा काम कर रहा है, लेकिन जब एक बार एक बात हो गयी तो यह पाजी का काम है कि औरत को छोड़ दे। मैं तो खुल्लमखुल्ला कहता हूँ, इसमें छिपाने की कोई बात नहीं। स्त्री-जाति पवित्र है। दातादीन अपनी जवानी में स्वयम् बड़े रसिया रह चुके थे; लेकिन अपने नेम-धर्म से कभी नहीं चूके। मातादीन भी सुयोग्य पुत्र की भाँति उन्हीं के पद-चिह्नों पर चल रहा था। धर्म का मूल तत्व है पूजा-पाठ, कथाव्रत और चौका-चूल्हा। जब पिता-पुत्र दोनों ही मूल तत्व को पकड़े हुए हैं, तो किसकी मजाल है कि उन्हें पथ-भ्रष्ट कह सके। छिंगुरीसिंह ने क़ायल होकर कहा -- मैंने तो भाई, जो सुना था, वह तुमसे कह दिया। दातादीन ने महाभारत और पुराणों से ब्राह्मणों-द्वारा अन्य जातियों की कन्याओं के ग्रहण किये जाने की एक लम्बी सूची पेश की और यह सिद्ध कर दिया कि उनसे जो सन्तान हुई, वह ब्राह्मण कहलायी और आजकल के जो ब्राह्मण हैं, वह उन्हीं सन्तानों की सन्तान हैं। यह प्रथा आदिकाल से चली आयी है और इसमें कोई लज्जा की बात नहीं। झिंगुरीसिंह उनके पाण्डित्य पर मुग्ध होकर बोले -- तब क्यों आजकल लोग वाजपेयी और सुकुल बने फिरते हैं?

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